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गाँव की ज़मीन बचाने की कहानी: अमर की संघर्षगाथा

सूरज डूब रहा था। गाँव के बाहर, एक पुराने बरगद के नीचे, अमर बैठा था। उसकी आँखें गीली थीं। हवा में गीता का श्लोक गूंज रहा था: “अन्ये च बहव: शूरा मदर्थे त्यक्तजीविता:”। कई योद्धा उसके लिए जान देने को तैयार थे। पर क्या वह उनके बलिदान के लायक था?

गाँव सूखे की चपेट में था। नदी का पानी गायब था। खेत रेगिस्तान बन चुके थे। लोग भूख से तड़प रहे थे। अमर, एक साधारण स्कूल शिक्षक, हर दिन बच्चों की खाली आँखें देखता। “गुरुजी, खाना कब मिलेगा?” एक बच्चे की आवाज़ उसके दिल को चीर देती।

एक दिन, उसने सुना कि शहर में एक कारखाना बन रहा था। वह गाँव को बचा सकता था। नौकरियां दे सकता था। पर उसकी कीमत? गाँव की ज़मीन। उनके घर। उनकी जड़ें। अमर का दिल डूब गया।

वह गाँव वालों के पास गया। “हम क्या करें?” एक बूढ़ी माँ ने पूछा। “हमारी ज़मीन ही हमारा सब कुछ है,” एक किसान ने कहा। अमर चुप रहा। उसका मन भारी था। फिर उसने कहा, “मैं शहर जाऊँगा। सच जानूंगा।”

रात के अंधेरे में वह चला। पैरों में छाले, दिल में उम्मीद। शहर में कारखाने वालों से मिला। “हमारा गाँव मर रहा है,” उसने कहा। “नौकरियां दो, पर हमारी ज़मीन मत छीनो।” मालिक ने हँसकर कहा, “ज़मीन तो हमारी हो चुकी है। तुम्हारे सरपंच ने बेच दी।” अमर के पैरों तले ज़मीन खिसक गई। धोखा।

वह लौटा। गाँव वालों को सच बताया। लोग रो पड़े। “अब क्या होगा?” एक लड़की ने पूछा। अमर ने गीता का श्लोक याद किया। योद्धा वह नहीं, जो हथियार उठाए। योद्धा वह, जो हार न माने। “हम लड़ेंगे,” उसने कहा। “सच के लिए।”

गाँव वालों ने एकजुट होकर आवाज़ उठाई। बच्चे, औरतें, बूढ़े—सब साथ आए। अमर ने शहर के चौराहे पर धरना दिया। “हमारी ज़मीन लौटाओ!” उसकी आवाज़ गूंजी। लोग सुनने लगे। सोशल मीडिया पर उनकी बात फैली। शहर जागा।

एक सुबह, कारखाने वाले आए। उन्होंने कागज़ात लौटाए। गाँव को पानी का हक मिला। कारखाने में नौकरियां दी गईं। अमर की आँखों में आँसू थे। उसने अपनी जान नहीं दी। उसने कुछ बड़ा दिया—उम्मीद। गाँव फिर जी उठा। खेत हरे हुए। बच्चों की हँसी लौटी।

आज के समाज के लिए संदेश:
आज हम चुप रहते हैं। अन्याय सहते हैं। पर हर गाँव, हर दिल में एक अमर है। वह योद्धा, जो सच के लिए लड़े। हमें एकजुट होना है। अपनी आवाज़ उठानी है। तभी हमारा समाज बचेगा। जैसे अमर ने दिखाया, वैसे ही हमें अपने हक के लिए लड़ना है।

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