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शंखनाद की गूंज: डर को हराने की कहानी

सूरज की किरणें धरती को छू रही थीं। गंगा के किनारे एक छोटा सा गाँव था। नाम था कुरुक्षेत्र। वहाँ रहता था एक बूढ़ा योद्धा, भीमसेन। उसका चेहरा समय की लकीरों से भरा था। फिर भी आँखों में चमक थी। वह गाँव का पितामह था। सभी उसका सम्मान करते थे।

भीमसेन का पोता, यश, एक नौजवान था। वह तेज़ था, पर मन में डर छिपा था। गाँव में एक बड़ा मेला होने वाला था। उसमें नौजवानों को अपनी प्रतिभा दिखानी थी। यश को डर था। क्या वह सबके सामने जीत पाएगा? लोग उसका मज़ाक तो नहीं उड़ाएंगे?

भीमसेन ने यश का डर देख लिया। उसका दिल पसीजा। वह जानता था, यश में प्रतिभा है। पर आत्मविश्वास की कमी है। एक शाम, गंगा के किनारे, भीमसेन ने यश को बुलाया। “यश, सुन,” उसने कहा। उसकी आवाज़ में दृढ़ता थी। “जीवन एक युद्ध है। डर हर किसी को होता है। पर जो डर को जीत ले, वही विजयी होता है।”

यश ने सिर झुका लिया। “पितामह, मैं असफल हो गया तो?” भीमसेन मुस्कुराए। उन्होंने एक पुराना शंख निकाला। उसे जोर से बजाया। उसकी गूंज पूरे गाँव में फैल गई। लोग रुक गए। सबने सुना। “यह शंखनाद है, यश,” भीमसेन बोले। “यह कहता है, मैं युद्ध के लिए तैयार हूँ। चाहे जीत हो या हार, मैं लड़ूंगा।”

यश की आँखें चमकीं। उसने शंख को छुआ। उसकी गर्मी महसूस की। “पितामह, मैं भी कोशिश करूंगा,” उसने कहा। मेला आया। यश ने अपनी कविता सुनाई। उसकी आवाज़ कांपी, पर रुकी नहीं। लोग तालियाँ बजाने लगे। यश का डर गायब हो गया। वह जीता नहीं, पर उसने हिम्मत दिखाई। गाँव ने उसका सम्मान किया।

आज का समाज डर से भरा है। असफलता का डर। आलोचना का डर। लोग सपने छोड़ देते हैं। सोशल मीडिया पर दूसरों की ज़िंदगी देखकर खुद को छोटा समझते हैं। उदाहरण लें। एक युवा, राहुल, इंजीनियर बनना चाहता था। पर परीक्षा में असफल हुआ। उसने हार मान ली। नौकरी छोड़ दी। लेकिन अगर राहुल ने हिम्मत रखी होती, जैसे यश ने, तो वह दोबारा कोशिश करता। शायद आज वह अपने सपने जी रहा होता।

भीमसेन का शंखनाद आज भी गूंजता है। यह कहता है, डर को गले लगाओ। कोशिश करो। हार भी एक सबक है। समाज को यह संदेश चाहिए। हिम्मत करो। अपने शंख को बजा दो। दुनिया तुम्हें सुनेगी।

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