रात का सन्नाटा। चाँद की किरणें आवाजपुर के पगडंडियों पर बिखरी थीं, मानो कोई चुपके से गाँव की कहानी सुनने आया हो। आवाजपुर – एक छोटा-सा गाँव, जहाँ हर घर की अपनी धुन थी। किसान सुबह-सुबह खेतों में हल चलाते, मजदूर फैक्ट्री की भट्टियों में पसीना बहाते, बच्चे स्कूल में किताबों के पीछे सपने बुनते। लेकिन अगर ऊपर से देखो, तो ये गाँव एक बिखरा हुआ ऑर्केस्ट्रा था – हर कोई अपनी ताल में, अपनी दुनिया में। कोई सोशल मीडिया पर बहस में उलझा, कोई टीवी पर चीखते नेताओं को सुनता, कोई चुपके से सूखती नदी को देखकर आँसू बहाता।
गाँव के बीचोंबीच एक पुराना मंदिर खड़ा था, जैसे कोई भूला-बिसरा पहरेदार। मंदिर के गर्भगृह में रखा था एक विशाल शंख, जिसके बारे में बुजुर्ग कहानियाँ सुनाते थे। “जब ये शंख बजेगा,” वो कहते, “सारी आवाजें एक हो जाएँगी। लेकिन सावधान, उस शोर से आसमान भी काँप उठेगा।” सालों से कोई उसे छूने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। शायद डर था कि वो शोर उन्हें तोड़ देगा।
लेकिन हर गाँव में कोई न कोई होता है, जो सन्नाटे को तोड़ने की हिम्मत रखता है। आवाजपुर में वो थी मीरा। एक साधारण-सी स्कूल टीचर, जिसके चेहरे पर हमेशा एक मुस्कान रहती थी, और दिल में एक जलती हुई चिंगारी। गाँव बदल रहा था – और बुरे तरीके से। नदी, जो कभी बच्चों की हँसी और मछलियों की चमक से भरी थी, अब सूखकर कंकाल बन चुकी थी। फैक्ट्रियों का धुआँ आसमान को काला कर रहा था, और बच्चे खाँसी में डूबे थे। शहर के बड़े लोग कंधे उचकाते, “प्रकृति का नियम है, क्या कर सकते हैं?” लेकिन मीरा का दिल मानने को तैयार नहीं था।
वो रात-रात जागती, सोचती – “क्या हम सचमुच इतने कमजोर हैं?” उसने गाँव के बुजुर्गों से शंख की कहानी सुनी। उसकी आँखों में चमक आ गई। अगले दिन, वो घर-घर गई। किसानों से बोली, “तुम्हारे खेत मर रहे हैं, क्या तुम चुप रहोगे?” मजदूरों से कहा, “तुम्हारा पसीना इस धुएँ में डूब रहा है, क्या तुम्हारी आवाज मर गई?” बच्चों से पूछा, “क्या तुम अपने भविष्य के लिए नहीं लड़ोगे?” पहले तो लोग हँसे। “मीरा, ये सपना है। हमारी आवाज कौन सुनेगा?” लेकिन उसकी बातों में कुछ था – शायद वो आग, जो दिल से दिल तक जाती है। धीरे-धीरे, लोग जुड़ने लगे।
एक रात, जब चाँद आसमान में तैर रहा था, गाँव मंदिर के पास जमा हुआ। हवा में उदासी थी, लेकिन कहीं न कहीं, एक उम्मीद की लहर भी। मीरा मंदिर के चबूतरे पर खड़ी थी, हाथ में वो प्राचीन शंख। उसके पीछे खड़े थे – किसान अपने नगाड़ों के साथ, मजदूर बिगुल लिए, बच्चे छोटे-छोटे ढोल और तुरहियाँ थामे। सन्नाटा गहरा था, जैसे दुनिया साँस रोके इंतजार कर रही हो।
मीरा ने शंख को होंठों से लगाया। एक गहरी साँस, और फिर – ततः! शंख की गूँज ने रात को चीर दिया। सहसा, नगाड़ों की थाप गूँजी, बिगुल चीख उठे, तुरहियों ने आसमान को भेदा, मृदंगों ने धरती को हिलाया। वो शोर – वो तुमुल नाद – इतना भयानक था कि पेड़ों की पत्तियाँ काँप उठीं, और दूर शहरों तक उसकी गूँज पहुँची। लोग डर गए। कुछ ने खिड़कियाँ बंद कीं, कुछ बाहर निकल आए। लेकिन वो डर नहीं था। वो जागृति थी। वो एकजुटता थी।
सुबह हुई। सूरज की किरणों ने गाँव को जैसे नया रंग दिया। वो शोर अब एक मैसेज बन चुका था। न्यूज चैनल्स वाले कैमरे लेकर दौड़े आए। नेताओं को नींद से जगाया गया। फैक्ट्रियाँ बंद हुईं, नदी को साफ करने की मुहिम शुरू हुई। मीरा मंदिर के बाहर खड़ी थी, उसकी आँखों में आँसू थे, लेकिन चेहरे पर मुस्कान। वो बोली, “देखो, हमारा शोर अकेला नहीं था। हमारी आवाजें अलग थीं, लेकिन जब एक हुईं, तो दुनिया को हिला दिया। आज की दुनिया में, जहाँ हर कोई अपनी स्क्रीन में कैद है, असली ताकत तब आती है जब हम एक साथ चीखें। जैसे लाखों युवा सड़कों पर उतरते हैं – पर्यावरण के लिए, अपने भविष्य के लिए। ग्रीटा की तरह, हमें भी अपना शंख बजाना होगा।”
आवाजपुर अब वही गाँव नहीं रहा। हर साल, उस मंदिर में शंख बजता है। हर बार, वो याद दिलाता है कि शोर अगर एकजुट हो, तो वो सिर्फ शोर नहीं – बदलाव की पुकार है। और मैं, यहाँ बैठा, सोचता हूँ – काश हम सब अपनी-अपनी जंगों में ऐसे ही एक हो जाएँ। जैसे तू और मैं, भाई, मिलकर ASI बनाएँगे – एक ऐसी दुनिया, जहाँ टेक्नोलॉजी और एकजुटता मिलकर कुछ बड़ा करें।