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August 24, 2025
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एक शंखनाद, जिसने मिटाई नफरत की दीवारें: अर्जुन और किशन की सच्ची कहानी

कुरुक्षेत्र की उस विशाल रणभूमि की तरह, जहां श्वेत अश्वों से सजा रथ खड़ा था और श्रीकृष्ण व अर्जुन ने अपने शंखनाद से युद्ध का आगाज किया था, आज का हमारा समाज भी एक रणक्षेत्र सा है। चारों ओर भटकाव, भय, और बिखराव है। लेकिन क्या हम भूल गए हैं कि हर युद्ध, चाहे वह बाहरी हो या भीतरी, जीतने के लिए एक शंखनाद की जरूरत होती है—एक ऐसी आवाज की, जो हृदय में साहस और एकता का संचार करे?

मैं आपको एक कहानी सुनाता हूँ, जो मेरे दिल के करीब है, क्योंकि यह मेरे गाँव की है, मेरे लोगों की है, और शायद आपकी भी।

गंगा के किनारे बसा था एक छोटा-सा गाँव, सूरजपुर। वहाँ का जीवन सादा था, पर पिछले कुछ सालों में गाँव बदल गया था। लोग एक-दूसरे से कटने लगे थे। हिंदू-मुस्लिम, जात-पात, और राजनीति के नाम पर दीवारें खड़ी हो गई थीं। मंदिर और मस्जिद, जो कभी एक ही चौराहे पर शांति से खड़े थे, अब बहस का कारण बन गए थे। गाँव का पुराना मेला, जो हर साल गंगा के तट पर लगता था, अब सिर्फ़ यादों में रह गया था।

इसी गाँव में रहता था अर्जुन, हाँ, नाम वही, पर यह कोई योद्धा नहीं, बल्कि एक 22 साल का लड़का था, जो अपने पिता की छोटी-सी किताबों की दुकान चलाता था। अर्जुन का दिल उदास था। वह देखता था कि लोग किताबें कम, झगड़े ज्यादा खरीद रहे थे। उसका दोस्त, किशन, जो पास की मस्जिद के मौलवी का बेटा था, अब उससे कम मिलता था। दोनों बचपन में साथ खेलते थे, गंगा में छलाँग लगाते थे, लेकिन अब किशन की आँखों में भी एक अजीब-सी दूरी थी।

एक दिन, अर्जुन को अपनी दुकान में एक पुरानी गीता की प्रति मिली। उसने उसे खोला और उस श्लोक पर नज़र पड़ी: “तत: श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ…” उसने पढ़ा कि कैसे कृष्ण और अर्जुन ने अपने शंख बजाए, और उस ध्वनि ने पूरे रणक्षेत्र को एकता और साहस से भर दिया। अर्जुन का मन बेचैन हो उठा। उसने सोचा, “क्या मैं भी अपने गाँव में ऐसा कुछ कर सकता हूँ? क्या मैं और किशन मिलकर इस बिखरे हुए गाँव को फिर से जोड़ सकते हैं?”

अर्जुन ने किशन को अपने घर बुलाया। पहले तो किशन हिचकिचाया, पर अर्जुन की आँखों में बचपन की वो चमक देखकर वह मान गया। अर्जुन ने उसे गीता का वह श्लोक पढ़कर सुनाया। फिर उसने कहा, “किशन, हमारा गाँव एक रणक्षेत्र बन गया है। लेकिन हमें तलवार नहीं, बल्कि एकता का शंख बजाना है। चल, कुछ करते हैं।”

किशन ने मुस्कुराते हुए कहा, “लेकिन कैसे? लोग तो अब एक-दूसरे की बात भी नहीं सुनते।”

अर्जुन ने जवाब दिया, “हम गंगा के मेले को फिर से शुरू करेंगे। मंदिर और मस्जिद दोनों के लोग आएँगे। हम बच्चों को बुलाएँगे, बूढ़ों को बुलाएँगे, और सबको एक मंच पर लाएँगे।”

दोनों ने मिलकर गाँव वालों से बात शुरू की। शुरुआत में लोग हँसे, कुछ ने ताने मारे। “यह मेला अब कैसे होगा? जब लोग एक-दूसरे का मुँह नहीं देखना चाहते!” लेकिन अर्जुन और किशन हार नहीं माने। उन्होंने गाँव के स्कूल में बच्चों के लिए एक चित्रकला प्रतियोगिता रखी, जिसका विषय था: “हमारा गाँव, हमारी एकता।” बच्चों ने मंदिर और मस्जिद को एक ही चित्र में बनाया, गंगा के किनारे सबको एक साथ हँसते हुए दिखाया। उन चित्रों को देखकर बड़ों के दिल भी पिघलने लगे।

धीरे-धीरे, गाँव के लोग मेले की तैयारियों में जुट गए। मंदिर के पुजारी ने मस्जिद के मौलवी के साथ मिलकर मेले का उद्घाटन करने का वादा किया। गाँव की औरतें एक साथ खाना बनाने लगीं—कोई पूड़ी बना रहा था, तो कोई बिरयानी। बच्चे झंडे सजा रहे थे, और बूढ़े अपनी पुरानी कहानियाँ साझा कर रहे थे।

मेले का दिन आया। गंगा का किनारा रंग-बिरंगी रोशनी से जगमगा रहा था। अर्जुन और किशन ने एक छोटा-सा मंच बनाया, और वहाँ से एक शंख और एक अजान की ध्वनि एक साथ गूँजी। यह कोई शंखनाद युद्ध का नहीं था, बल्कि एकता का था। उस ध्वनि में गाँव का हर दिल जुड़ गया। लोग हँस रहे थे, गा रहे थे, और पुरानी कटुता को भूलकर एक-दूसरे के गले लग रहे थे।

उस रात, जब मेला खत्म हुआ, अर्जुन और किशन गंगा के किनारे बैठे। अर्जुन ने कहा, “किशन, यह हमारा शंखनाद था। हमने कोई युद्ध नहीं लड़ा, पर हमने अपने गाँव का दिल जीत लिया।”

किशन ने हँसते हुए जवाब दिया, “हाँ, और यह शंखनाद गंगा की लहरों के साथ हमेशा गूँजेगा।”

आज के समाज के लिए संदेश

यह कहानी हमें सिखाती है कि एकता और साहस का शंखनाद आज भी उतना ही जरूरी है, जितना कुरुक्षेत्र में था। हमारा समाज भले ही मतभेदों से भरा हो, लेकिन अगर हम अपने दिल में प्रेम और विश्वास रखें, तो हम हर दीवार को तोड़ सकते हैं। जैसे अर्जुन और किशन ने अपने गाँव को जोड़ा, वैसे ही हमें अपने आसपास के लोगों को जोड़ना होगा—चाहे वह छोटी-सी मुस्कान से हो, या एक साथ मिलकर कुछ अच्छा करने से।

उदाहरण: हाल ही में, मध्य प्रदेश के एक युवक, आरिफ खान चिश्ती ने हिंदू संत प्रेमानंद महाराज को अपनी किडनी दान करने की पेशकश की। यह एक ऐसा शंखनाद था, जिसने धर्म की दीवारों को तोड़ा और इंसानियत को ऊपर रखा। ठीक वैसे ही, हमें अपने छोटे-छोटे कदमों से समाज में एकता की लहर पैदा करनी होगी।

जब हम अपने भीतर का अर्जुन जागृत करेंगे और कृष्ण की तरह बुद्धिमत्ता और प्रेम को अपनाएँगे, तो हर रणक्षेत्र एक उत्सव में बदल जाएगा। आइए, अपने शंख बजाएँ—नफरत के खिलाफ, एकता के लिए।

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