Rudrashtakam | त्वरित फलदायी है शिव रुद्राष्टकम का पाठ : कलियुग के कष्टों से मुक्ति के लिये तुलसीदास द्वारा रचित श्री रुद्राष्टकम् महान संस्कृत महाकाव्य रामायण में हुई है। जो भगवान शिव के पवित्र शहर वाराणसी के काशी विश्वनाथ मंदिर में 16वीं शताब्दी में लिखा था। मान्यता के अनुसार यदि कोई भक्त श्रद्धा पूर्वक, भगवान शिवजी को एक लोटा जल भी अर्पित कर दे, तो भी वे प्रसन्न हो जाते हैं। यदि कोई शत्रु आपको परेशान कर रहा है, तो आप प्रतिदिन सुबह और शाम, 7 दिनों तक इस महान आठ छंदों वाली अष्टकम “रुद्राष्टकम्” का पाठ करने से, शत्रुओं का होगा विनाश। यदि आप जीवन में भक्ति लाना चाहते हैं, शिव जी की विशेष कृपा पाना चाहते हैं, तो आपको रुद्राष्टकम् का पाठ अवश्य करना चाहिए।
श्री रामचरित्र मानस में वर्णित रामायण के अनुसार, मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान श्रीराम ने रावण जैसे भयंकर शत्रु पर विजय पाने के लिए रामेशवरम में शिवलिंग की स्थापना कर श्रद्धापूर्वक रूद्राष्टकम स्तुति का पाठ किया था और परिणाम स्वरूप शिव की कृपा से रावण का अंत भी हुआ था।
गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित श्री रामचरित्र मानस के उत्तर काण्ड में वर्णित रूद्राष्टकम की कथा आता है, जब काकभुशुण्डि जी गरूड़ जी को अपने पूर्व जन्म की कथा सुनाते हैं। जिसके अनुसार भगवान शिव उन्हें गुरु का अपमान करने पर शाप देते हैं, तब उनके गुरु ने उन्हें शाप से शीघ्र मुक्ति दिलाने के लिए भगवान शिव से स्तुति की थी।
काकभुशुण्डि जी गरूड़ जी से कहते हैं, कि मेरा जन्म पूर्व काल के किसी कलियुग में, अयोध्या पुरी में हआ। एक बार अयोध्या पुरी में अकाल पड़ा तो मैं उज्जैन चला गया। वहां एक बड़े ही दयालु ब्राह्मण जो भगवान विष्णु और शिव की पूजा करते थे। उन्होंने मुझे शिव मंत्र दिया वह मुझे पुत्र की तरह पढ़ाते थे। मैं भगवान शिव का सेवक और दूसरे देवताओं की निंदा करने वाला अभिमानी था। एक बार गुरु ने मुझे समझाया कि ब्रह्मा और शिव भी श्री हरि के चरणों के प्रेमी हैं, तू उनसे द्रोहकर सुख नहीं प्राप्त कर सकता। रोज़ बैठ कर शिव मंत्र को जपने से मुझे अहंकार हो आया। गुरु जी ने जब भगवान शिव को हरि का सेवक कहा तो मेरा हृदय जल उठा। मैं गुरु जी से ही द्रोह करने लगा।
एक बार मैं मंदिर में शिव मंत्र जप रहा था, तो गुरु जी वहां आये तो मैंने अभिमान वश अपने गुरु को प्रणाम नहीं किया। गुरु जी तो दयालु थे उन्होंने क्रोध नहीं किया लेकिन महादेव गुरु का अपमान ना सह सके। उसी समय मंदिर में आकाशवाणी हुई कि मूर्ख यद्यपि तेरे गुरु को क्रोध नहीं है, लेकिन मैं तुम्हें शाप देता हूं, कि तू गुरु के सामने अजगर की तरह बैठा रहा इसलिए जा तू सर्प हो जा और पेड़ की खोखले में जाकर रह।
उस समय मेरे गुरु ने भगवान शिव से हाथ जोड़कर स्तुति की। फलस्वरूप, स्तुति सुनकर भगवान शिव प्रसन्न हुए और आकाशवाणी हुई कि वर मांगो। मेरे गुरु कहने लगे कि हे दीनो पर दया करने वाले, आप ऐसी कृपा करें कि थोड़े ही समय में मेरा शिष्य शाप मुक्त हो जाएं। गुरु जी के वचन सुनकर फिर से आकाशवाणी हुई कि यद्यपि इसने भयंकर पाप किया है, लेकिन मैं तुम्हारी स्तुति से प्रसन्न, इसलिए मैं इस पर कृपा अवश्य करूंगा। यह एक हज़ार जन्म लेगा लेकिन इसे दुख नहीं होगा और किसी भी जन्म में इसका ज्ञान नहीं मिटेगा।
कथा आता है, जब गोस्वामी तुलसीदास जी उत्तर भारत की यात्रा में, बद्रीनाथ, केदारनाथ के बाद, काकभुशुंडी ताल गये, वहीं उनको काकभुशुंडी जी के दर्शन और संभाषण का अवसर मिला। काकभुशुंडी को, बहुत ही सुयोग्य महात्मा मिलने पर बड़ी प्रसन्नता हुई। शिवजी के वरदान से, काकभुशुंडी जी को पूर्व जन्मों का ज्ञान याद था। काकभुशुंडी जी रामचरितमानस का व्याख्यान, वहाँ आने वाले पक्षियों को सुनाया करते थे। वह स्तुति काकभुशुंडी जी ने, तुलसीदास जी को सुनाया, जो स्तुति उनके गुरु जी ने गायी थी। श्रुतिधर, तुलसीदास जी ने बड़े आदर से उसी को ठीक वैसे ही, अपनी बनायी रामचरितमानस में लिखा। इस रुद्राष्टकम स्तोत्रम में प्रतिदिन प्रातः स्नान करके और भगवान शिव से प्रार्थना करने से महादेव प्रसन्न होते हैं और भक्ति प्रदान करते हैं।
रुद्राष्टकम
नमामीशमीशान निर्वाण रूपं, विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदः स्वरूपम् ।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं, चिदाकाश माकाशवासं भजेऽहम् ॥
निराकार मोंकार मूलं तुरीयं, गिराज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम् ।
करालं महाकाल कालं कृपालुं, गुणागार संसार पारं नतोऽहम् ॥
तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं, मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरम् ।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारू गंगा, लसद्भाल बालेन्दु कण्ठे भुजंगा॥
चलत्कुण्डलं शुभ्र नेत्रं विशालं, प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम् ।
मृगाधीश चर्माम्बरं मुण्डमालं, प्रिय शंकरं सर्वनाथं भजामि ॥
प्रचण्डं प्रकष्टं प्रगल्भं परेशं, अखण्डं अजं भानु कोटि प्रकाशम् ।
त्रयशूल निर्मूलनं शूल पाणिं, भजेऽहं भवानीपतिं भाव गम्यम् ॥
कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी, सदा सच्चिनान्द दाता पुरारी।
चिदानन्द सन्दोह मोहापहारी, प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ॥
न यावद् उमानाथ पादारविन्दं, भजन्तीह लोके परे वा नराणाम् ।
न तावद् सुखं शांति सन्ताप नाशं, प्रसीद प्रभो सर्वं भूताधि वासं ॥
न जानामि योगं जपं नैव पूजा, न तोऽहम् सदा सर्वदा शम्भू तुभ्यम् ।
जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं, प्रभोपाहि आपन्नामामीश शम्भो ॥
रूद्राष्टकं इदं प्रोक्तं विप्रेण हर्षोतये
ये पठन्ति नरा भक्तयां तेषां शंभो प्रसीदति।।
॥ इति श्रीगोस्वामितुलसीदासकृतं श्रीरुद्राष्टकं सम्पूर्णम् ॥
Rudrashtakam
Namami Shamishan Nirvan Roopam
Namami Shamishan Nirvan Roopam
Vibhum Vyapakam Brahma Veda Swaroopam ।
Nijam Nirgunam Nirvikalpam Nireeham
Chidakaash Maakash Vaasam Bhajeham ॥ 1 ॥
Nirakaar Omkar Moolam Turiyam
Giragyaan Goteet Meesham Girisham ।
Karaalam Mahakaal Kaalam Kripalam
Gunagaar Sansaar Paaram Naatoham ॥ 2 ॥
Tusharaadri Sankaash Gauram Gabheeram
Manobhoot Koti Prabha Shi Shareeram ।
Sfooranmauli Kallolini Charu Ganga
Lasadbhaal Baalendu Kanthe Bhujanga ॥ 3 ॥
Chalatkundalam Bhru Sunethram Vishaalam
Prasannananam Neelkantham Dayalam ।
Mrigadheesh Charmaambaram Mundamaalam
Priyam Shankaram Sarvanaatham Bhajaami ॥ 4 ॥
Prachandam Prakrishtam Pragalbham Paresham
Akhandam Ajambhaanukoti Prakaasham ।
Trayahshool Nirmoolanam Shoolpaanim
Bhajeham Bhawani Patim Bhaav Gamyam ॥ 5 ॥
Kalateet Kalyaan Kalpantkaari
Sada Sajjanaanand Daata Purari ।
Chidaanand Sandoh Mohapahari
Praseed Praseed Prabho Manmathari ॥ 6 ॥
Nayaavad Umanath Paadaravindam
Bhajanteeha Lokey Parewa Naraanaam ।
Na Tawatsukham Shaantisantapnaasham
Praseed Prabho Sarvabhootadhivaasam ॥ 7 ॥
Na Jaanaami Yogam Japam Naiva Poojaam
Na Toham Sada Sarvada Shambhu Tubhhyam ।
Jarajanm Dukhhaudya Taapatyamaanam
Prabho Paahi Aapan Namaami Shri Shambho ॥ 8 ॥
Rudrashtakamidam Proktam Vipren Hartoshaye ।
Ye Pathanti Naraa Bhaktaya Teyshaam Shambhu Praseedati ॥
॥ Iti Shri Goswami Tulasidaasa krutam Sri Rudrashtakam Sampoornam ॥
ଶ୍ରୀ ରୁଦ୍ରାଷ୍ଟକମ୍
ନମାମୀଶମୀଶାନ ନିର୍ବାଣରୂପଂ ବିଭୁଂ ବ୍ୟାପକଂ ବ୍ରହ୍ମବେଦସ୍ଵରୂପମ୍ ।
ନିଜଂ ନିର୍ଗୁଣଂ ନିର୍ବିକଲ୍ପଂ ନିରୀହଂ ଚିଦାକାଶମାକାଶବାସଂ ଭଜେଽହମ୍ ॥ ୧ ॥
ନିରାକାରମୋଂକାରମୂଲଂ ତୁରୀୟଂ ଗିରା ଜ୍ଞାନ ଗୋତୀତମୀଶଂ ଗିରୀଶମ୍ ।
କରାଲଂ ମହାକାଲ କାଲଂ କୃପାଲଂ ଗୁଣାଗାର ସଂସାରପାରଂ ନତୋଽହମ୍ ॥ ୨ ॥
ତୁଷାରାଦ୍ରି ସଂକାଶ ଗୌରଂ ଗଭୀରଂ ମନୋଭୂତ କୋଟିପ୍ରଭା ଶ୍ରୀ ଶରୀରମ୍ ।
ସ୍ଫୁରନ୍ମୌଲି କଲ୍ଲୋଲିନୀ ଚାରୁ ଗଙ୍ଗା ଲସଦ୍ଭାଲବାଲେନ୍ଦୁ କଣ୍ଠେ ଭୁଜଙ୍ଗା ॥ ୩ ॥
ଚଲତ୍କୁଣ୍ଡଲଂ ଭ୍ରୂ ସୁନେତ୍ରଂ ବିଶାଲଂ ପ୍ରସନ୍ନାନନଂ ନୀଲକଣ୍ଠଂ ଦୟାଲମ୍ ।
ମୃଗାଧୀଶଚର୍ମାମ୍ବରଂ ମୁଣ୍ଡମାଲଂ ପ୍ରିୟଂ ଶଂକରଂ ସର୍ବନାଥଂ ଭଜାମି ॥ ୪ ॥
ପ୍ରଚଣ୍ଡଂ ପ୍ରକୃଷ୍ଟଂ ପ୍ରଗଲ୍ଭଂ ପରେଶଂ ଅଖଣ୍ଡଂ ଅଜଂ ଭାନୁକୋଟିପ୍ରକାଶମ୍ ।
ତ୍ରୟଃ ଶୂଲ ନିର୍ମୂଲନଂ ଶୂଲପାଣିଂ ଭଜେଽହଂ ଭବାନୀପତିଂ ଭାବଗମ୍ୟମ୍ ॥ ୫ ॥
କଲାତୀତ କଲ୍ୟାଣ କଲ୍ପାନ୍ତକାରୀ ସଦା ସଜ୍ଜନାନନ୍ଦଦାତା ପୁରାରୀ ।
ଚିଦାନନ୍ଦ ସଂଦୋହ ମୋହାପହାରୀ ପ୍ରସୀଦ ପ୍ରସୀଦ ପ୍ରଭୋ ମନ୍ମଥାରୀ ॥ ୬ ॥
ନ ୟାବତ୍ ଉମାନାଥ ପାଦାରବିନ୍ଦଂ ଭଜନ୍ତୀହ ଲୋକେ ପରେ ବା ନରାଣାମ୍ ।
ନ ତାବତ୍ ସୁଖଂ ଶାନ୍ତି ସନ୍ତାପନାଶଂ ପ୍ରସୀଦ ପ୍ରଭୋ ସର୍ବଭୂତାଧିବାସମ୍ ॥ ୭ ॥
ନ ଜାନାମି ୟୋଗଂ ଜପଂ ନୈବ ପୂଜାଂ ନତୋଽହଂ ସଦା ସର୍ବଦା ଶମ୍ଭୁ ତୁଭ୍ୟମ୍ ।
ଜରା ଜନ୍ମ ଦୁଃଖୌଘ ତାତପ୍ୟମାନଂ ପ୍ରଭୋ ପାହି ଆପନ୍ନମାମୀଶ ଶମ୍ଭୋ ॥ ୮ ॥
ରୁଦ୍ରାଷ୍ଟକମିଦଂ ପ୍ରୋକ୍ତଂ ବିପ୍ରେଣ ହରତୋଷୟେ ।
ୟେ ପଠନ୍ତି ନରା ଭକ୍ତ୍ୟା ତେଷାଂ ଶମ୍ଭୁଃ ପ୍ରସୀଦତି ॥
॥ ଇତି ଶ୍ରୀଗୋସ୍ଵାମିତୁଲସୀଦାସକୃତଂ ଶ୍ରୀରୁଦ୍ରାଷ୍ଟକଂ ସମ୍ପୂର୍ଣମ୍ ॥
Credit the Video: Bhakti Bharat Ki YouTube Channel
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