दो सौ वर्षों बाद फिर गूँजा वेदों का दिव्य नाद:
लगभग दो सदियों बाद वाराणसी की पवित्र भूमि पर एक ऐतिहासिक पल जन्मा, जब 19 वर्षीय वेदमूर्ति देवव्रत महेश रेखे (Vedamurti Devvrat Mahesh Rekhe) ने शुक्ल यजुर्वेद के 2000 मंत्रों का दंडक्रम पारायणम् पूर्ण किया। वह तपस्वी साधना जिसे अंतिम बार लगभग 200 वर्ष पहले नासिक के विद्वान नारायण शास्त्री देव ने इस उपाधि को हासिल किया था। यह केवल पाठ नहीं था, बल्कि 50 दिनों की कठोर तपस्या, मौन, व्रत, ब्रह्मचर्य, अनुशासन, देश को याद दिलाया कि सनातन धर्म केवल ग्रंथों में नहीं, बल्कि ध्वनि, श्रुति और साधना में है, जो गुरु-शिष्य परंपरा से आज तक चलती आई है। जब तक ऐसे साधक जन्म लेते रहेंगे, वेदों का स्वर, भारत की आत्मा और सनातन की अखंड ज्योति कभी मौन नहीं होगी।
मान्यता और महत्व: देश के प्रधानमंत्री से लेकर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री, काशी के गलियारों से लेकर साधु, संत और बुद्धिजीवियों के बीच में आज उसकी चर्चा है। उसने वो किया है, जिसे आज भी दुनिया के कोई मशीन, कोई कंप्यूटर चिप, सुपर कंप्यूटर या एआई मॉडल नहीं दोहरा सकता।
पीएम मोदी ने की तारीफ: देवव्रत की इस अद्भुत सफलता को भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने सार्वजनिक रूप से प्रशंसा की। भारतीय संस्कृति में आस्था रखने वाले हर एक व्यक्ति को ये जानकर अच्छा लगेगा कि देवव्रत ने शुक्ल यजुर्वेद की माध्यन्दिन शाखा के 2000 मंत्रों वाले ‘दण्डकर्म पारायणम्’ को 50 दिनों तक बिना किसी अवरोध के पूर्ण किया है।
सीएम योगी आदित्यनाथ ने दी प्रतिक्रिया: उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने महाराष्ट्र के रहने वाले 19 वर्ष के देवव्रत महेश रेखे ने कुछ ऐसा कर दिया है, जिससे न सिर्फ वर्तमान पीढ़ी, यह पूरे आध्यात्मिक जगत के लिए प्रेरणा का नव-दीप है।
आध्यात्मिक संस्था ने किया सम्मानित: उन्हें प्रतिष्ठित आध्यात्मिक संस्था श्री शृंगेरी शारदा पीठ द्वारा सम्मानित किया गया। उन्हें सम्मानस्वरूप लगभग ₹5 लाख मूल्य का स्वर्ण कंगन और ₹1,11,116 की धनराशि प्रदान की गईं।
अद्भुत स्मरण (Superbrain) करने की क्षमता: आज भारत का एक 19 साल बच्चा अपने अंदर ऐसी क्षमता लेकर चलता है, उसी परंपरा को फिर से जला रहा है, जो पूरी दुनिया को सोचने पर मजबूर कर देता है। किसी देश की अर्थव्यवस्था, सेना, ताकत, खोज, तकनीक या वैज्ञानिक आविष्कारों से आगे एक साधारण इंसान के भीतर ऐसे क्षमता छिपी होती है, जो मशीनों की गति से कहीं ऊपर है। महाराष्ट्र के अहिल्या नगर जिले से एक छोटे से गांव के साधारण ब्राह्मण परिवार में रहने वाले 19 साल बच्चा वेदमूर्ति देवव्रत महेश रेखे गणपाठी की असली पहचान बनी, उस कठिन परीक्षा से, जो इसे आखिरी बार 200 साल पहले नासिक के वेदमूर्ति नारायण शास्त्र देव ने किया था और विश्व में दूसरी बार भारत में 200 साल बाद यह हुआ है। देवव्रत ने बहुत ही कम उम्र में यह उपाधि प्राप्त की। जो काम एआई नहीं कर सकता, टेक्नोलॉजी नहीं कर सकती, कंप्यूटर नहीं कर सकता, सुपर कंप्यूटर नहीं कर सकता, वो एक भारतीय ने किया है। ऐसी अद्भुत स्मरण करने की क्षमता। जिसके दिमाग ने खुद को मशीन नहीं, बल्कि उससे ऊपर की किसी स्थिति में ढाल लिया हो।
200 साल बाद जिसने काशी में दोहराया इतिहास: काशी के राम घाट पर मौजूद वल्लभ राम शालिग्राम सांगवेद विद्यालय में 2 अक्टूबर से 30 नवंबर तक सभी विद्वान बैठे हुए थे। देवव्रत ने शुक्ल यजुर्वेद के लगभग 2000 मंत्रों का दंडक्रम पारायण कि विधिवत पाठ करके असंभव को संभव कर दिखाया है। उस पारायण में कहीं भी इनकी त्रुटि नहीं हुई, कहीं भी ये रुके नहीं। बिना गलती, रोज 4 घंटे लगातार 50 दिनों तक अनवर्त बोलना किस स्तर का काम है। इसके अंदर छिपी मेहनत, अनुशासन, क्षमता और मन की एकाग्रता समझने के लिए जरूरी है। देवव्रत महेश रेखे को वैदिक संस्कृति के उस शिखर पर पहुंचा दिया। गंगा किनारे अपनी भीष्म तपस्या से सनातनी साधना का स्वर्णिम इतिहास रच दिया। देखिए कैसे महाराष्ट्र से आए महेश, 14 साल की कठोर तप से काशी में अपनी संकल्प साधना और अनुशासन से वेद मूर्ति बन गए। यह वेदमूर्ति कोई साधारण उपाधि नहीं है। यह कार्य कितना दुर्लभ है, कितना कठिन है, इसका अंदाजा आप लगा सकते हैं, जो पिछले 200 सालों में यह उपाधि कोई हासिल नहीं कर पाया।
इसीलिए आज हर इंसान, हिंदुस्तान के सामने नतमस्तक है। दुनिया भर के वैज्ञानिक कह रहे हैं, कि भाई यह ह्यूमन ब्रेन (Human Brain) के हाई परफॉर्मेंस मोड (High Performance Mode) जैसा है। वो स्थिति जब दिमाग अपनी सबसे तेज, सबसे सटीक, सबसे एकाग्र अवस्था में होता है। आज कंप्यूटर अरबों गणनाएं कर लेते हैं। एआई मॉडल सेकंड में किताब पढ़ जाते है। फिर भी किसी मशीन में इतना जीवंत नियंत्रण नहीं है, कि वह ध्वनि की उन सूक्ष्म बारीकियों को इतनी सटीकता के साथ दोहरा सके।
देवव्रत की मेहनत, महानता और स्वभाव को देखिए। कोई आम आदमी होता तो पागल हो जाता। इतनी वाहवाही, इतनी पहचान, इतना सम्मान मिलने के बाद उसने कहा कि अभी तो शुरुआत है। असली साधना तो बाकी है। यह बात बहुत गहरी है। जिन लोगों में अहंकार आ जाए वो आगे नहीं बढ़ पाते। जहां मेहनत बढ़ती है, वहां विनम्रता बढ़ती है। यह इंसान को ज्ञान तो देती है साथ ही विनम्रता भी देती है।
आज की पीढ़ी (GEN-Z) जेन-ज़ी के लिए संदेश: बाकी देशों का जेन-जी अपने देश में उत्पात मचाने में लगा हुआ है। हमारे भारत का जेन-जी ज्ञान अर्जित करने पर लगा हुआ है। आज की युवा पीढ़ी एक बार फिर वेद, संस्कृत और प्राचीन भारतीय ज्ञान की लौट रही है। हर एक युवा के लिए एक एक ऐतिहासिक क्षण है। यही भारत की आध्यात्मिक रीढ़ को भविष्य में और मजबूत बनाएगा।
वेद मूर्ति की उपाधि क्या है: आप स्वयं वेद स्वरूप हो गए तो, आपका उस प्रकार से सम्मान किया जाता है। वेद हि शिव एवं शिव ही वेद है, और वेद पढ़ने वाले ब्राह्मण साक्षात् शिव के समान है। जो वेद का पाठ करता है, वह शिव के तुल्य होता है।
वेदः शिवः शिवो वेदः वेदाध्यायी सदा शिवः !
तस्मात् सर्व प्रयत्नेन वेदमेव सदा पठेत् !!
वेद मूर्ति बनने का उपाय: भारतीय संस्कृति मैं गर्भाधान से लेकर 16 संस्कार हैं। उनमें से जो महत्वपूर्ण संस्कार गर्भाधान से लेकर के और विद्या अध्ययन तक। यज्ञोपवीत (Upnayan Sanskar) संस्कार से किसान तक, इन संस्कारों का एक विशेष योगदान है। जिसमें सबसे पहला संस्कार जो गर्भाधान संस्कार है, उसके लिए ज्योतिषीय के दृष्टिकोण से समय को निर्धारित किया जाता है, कि यह समय संतान उत्पत्ति के लिए बेहतर समय है। इसके बाद पुषन संस्कार है, सीमंतोनयन संस्कार है, जात कर्म संस्कार है, नामकरण संस्कार है, यानी संतान होने से पहले करीब करीब पांच संस्कारों को पालन किया जाता है। इसके बाद अन्न प्राशन, यज्ञोपवीत संस्कार किया जाता है।
हर एक मातापिता संतान उत्पत्ति के लिए समय पर प्रयास बहुत महत्वपूर्ण है। उस के साथ भगवान की आराधना करना चाहिए, उन संस्कारों को पालन किया जाएगा तो, इस प्रकार के वेद मूर्ति निश्चित रूप से उत्पन्न होंगे। ब्राह्मणों की जो मेधा शक्ति होती है, और गुरु परंपरा का जो ये अखंड संबंध है, निश्चित तौर पर ऐसे देवत भारत के अंदर जन्म लेते हैं। आपका अनुशासन, नियम, सदाचार, संकल्प जब संस्कृति, सभ्यता, सनातन, गाय, गंगा, गौरी का संरक्षण, गुरुकुल के संरक्षण, राष्ट्र के कल्याण की करती है, तब उस प्रकार की मूर्ति निश्चित रूप से उत्पन्न होती है।
उन पूरे संस्कारों को फॉलो किया जाए, उनसे जुड़ा जाए, तभी हम इतने वेद शास्त्रों का पठन और कंठस्थ कर सकते हैं। जब हम किसी भी शास्त्र को वेदों को, यह स्वर में भी और उच्चारण भी कंठस्थ करते हैं। तभी हम वेद मूर्ति बन सकते हैं। हर एक माता-पिता के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।
वेदमूर्ति पाठ्यक्रम सबसे ज्यादा कठिन माना जाता है। उपनयन संस्कार के बाद उसका अध्ययन चालू होता है। लगभग 9 से 10 साल में अभ्यास पूरा किया जाता है। जो दंडक्रम पारण, उसके लिए कम से कम तीन चार साल पढ़ाई करते हैं। सबसे कठिन इस स्वाध्याय में अत्यधिक 17 से 18 घंटे समय उस अध्याय पर जाता है। इसलिए जो स्वर माला है, ताल है, शुद्धिकरण है, उच्चारण है, इसमें सभी चीजों का ध्यान रखा जाता है। जी्हा से निकला हुआ हर एक मंत्र मानो ब्रह्मांड की हर एक ऊर्जा से मिलन कर रहा है। इसमें शिव जी, विष्णु जी, ब्रह्मा जी सभी के मिश्रण है। इतना मेधावी छात्र अगर किसी को चाहिए तो उसके लिए उपासना करनी पड़ेगी। निश्चित तौर पर वो फलीभूत हो जाता है। जो अधिक समय लगाएगा वो पारंगत हो जाता है। गुरु का महत्व सबसे इंपॉर्टेंट (Important) होता है। इनके तो पिता ही इनके गुरु हैं। ये हमारी गुरु परंपरा का सबसे उत्तम रूप है।
वेद मूर्ति उपाधि की प्रक्रिया क्या है: वेद मूर्ति वो होते हैं जिनको वेदों, मंत्रों और रीतियों का ज्ञान हो, वेद में पारंगत हो, तो उसको वेद मूर्ति कहते हैं। यह उपाधि उन सन्यासियों को दी जाती है जिन्होंने वेदों और हिंदू धर्म ग्रंथों का लंबे समय तक चिंतन, मनन और अध्ययन किया हो। वेद के लिए जो प्रक्रिया का वर्णन किया गया हैं, जो नियम तैयार किए गए हैं, उस नियम का पालन करते हुए, वेदों के पाठ में कोई त्रुटि ना हो, जिसको वेद कंठस्थ हो होना चाहिए। वेद के पाठ के लिए प्रकृति और विकृति दो प्रकार नियम वर्णन है। प्रकृति पाठ में जहां पर समिता पद और क्रम तीन प्रकार का नियम है। उसके बाद विकृति पाठ में आठ प्रकार विकृतियां होती हैं। जो जटा, माला, शिख, रेखा, ध्वजो, दंडो, रथो और घना दंड क्रम का नियम है। हमारे जो विद्वान है इस दंड को वैदिक पाठ का मुकुट बताते हैं।
दंडक्रम प्रक्रिया क्या है: भारतीय संस्कृति का मूल वेद है, उनके आरक्षण और विश्व कल्याण के लिए दण्डक्रम पारायणम् किया गया है। सरल भाषा में यह मंत्रों को सीधा सीधा नहीं, उल्टा नहीं, बल्कि दर्जनों तरीके से बोलने की विधि है। इसमें हर शब्द को उसकी जगह से हटाकर, फिर वापस जोड़कर, कभी दोहराकर, कभी तोड़कर, कभी उलट कर, नए क्रम में जोड़कर बोलना पड़ता है। इसीलिए यह सिर्फ याददाश्त की ताकत से नहीं हो सकता। यह ध्वनि, सांस, लय, आवाज, दिमाग के बीच का बेहतरीन तालमेल होना चाहिए। इसके अंदर संहिता पाठ, पद पाठ, दंड क्रमांक पाठ, जटा पाठ, माला पाठ, शिखा पाठ, रेखा पाठ, ध्वज पाठ, दंड पाठ, रथ पाठ और घन पाठ। इन पाठ पद्धतियों का वेद ना केवल शब्दशः, स्वरशः और नादशा इसका पालन किया जाता है।
दंडक्रम में जब आप किसी मंत्र को सीधा पाठ करना, फिर उसके बाद उल्टा पाठ करना, उसके बाद उन दोनों को मिलाकर के पाठ करने की जो कला है, तो आप एक दंड पाठ को पूरा करते हैं। तो ये जो स्वर माला है, ताल है, शुद्धिकरण है, उच्चारण है। दंडक्रम में अगर एक भी गलती होती है, तो आपकी पूरी साधना आपको शुरू से शुरू करना पड़ता है। यह वो परीक्षा है, जिसमें सिर्फ वही पास होता है। जिसमें गुरु का महत्व होता है। गुरु बैठते हैं, एक एक चीज पर दृष्टि डालते हैं। जब इन सब चीजों में हम पारंगत हो जाते हैं, जिसको दंडकर वैदिक संहिताओं के विकृति पाठों में से एक है। दंडक्रम का मतलब हर मंत्र को 11 अलग-अलग क्रमों में दोहराना होता है। यह दंड प्रहण गणितीय पद्धति में, कैसे मंत्रों को ऊपर ले जाना, फिर वापस पुनः उसको लाना, यह पूरा एक चक्र है। लेकिन निश्चित तौर पर यह एक जटिल साधना है, एक जटिल स्वाध्याय है, अध्ययन है। इसमें लगातार अध्ययन करना, स्वाध्याय करना, नियमों का पालन करना, गुरु की दृष्टि में रहना और अपने लक्ष्य पर दृष्टि करना। इन सभी नियमों का पालन कर आज यह गर्व का क्षण हमारे बीच में आया है।
जहां तक इस साधना की मार्ग पर चलना, तो इसमें गुरु परंपरा का बड़ा महत्व है। गुरु के बिना यह साधना, यह सफलता प्राप्त करना, संभव नहीं लगता। इसमें नियमित रूप से गुरु का अपने शिष्य पर दृष्टि रहती है। लगातार अध्ययन रहता है। दंड क्रम केवल एक मेगा शक्ति नहीं है। ये अपने आप में गणित है। इसलिए दंड क्रम विधान अपने आप में गणित है।
आवश्यकता ही आविष्कार की जननी होती है। वैदिक परंपरा में मुख्यतः चार स्वर होते हैं, अनुदात, उद्दात, स्वरित और प्रचय। वेद पाठ दो प्रकार के होते हैं, एक प्रकृति पाठ, दूसरा विकृति पाठ। इसीलिए हमें गुरु की आवश्यकता होती है।
प्रकृति पाठ के अंदर तीन प्रकार पाठ होते हैं। संहिता पाठ, पद पाठ, क्रम पाठ। प्रकृति पाठ का मतलब नेचुरली आप जैसे पढ़ेंगे। जैसे संहिता यानी मंत्र जैसा है। जिस क्रम में दिया है, जिस प्रकार की संधि हुई है, जिस प्रकार के स्वरों का प्रयोग है, यदि आप वैसे ही पढ़ते हैं तो उसे संहिता पाठ कहा जाता है। लेकिन जब आप पद पाठ करते हैं, तो आप मंत्र को पदों में विभक्त कर लेते हैं, यानी जहांजहां संधि हो रखी है, उन संधियों को तोड़कर जो भी पद है, आप ले सकते हैं। तो मंत्रों में जो जो पद है, उनको आप अलग-अलग कर लेते हैं। उसके बाद आप उसका पाठ करते हैं, तो इसे पद पाठ कहा जाता है। पद पाठ आने के बाद संहिता पाठ का महत्व घटता जा रहा था। तो संहिता पाठ का भी महत्व बना रहे, पद पाठ का भी महत्व बना रहे, इसलिए तीसरे प्रकृति पाठ की व्यवस्था क्रम पाठ की गई। अब इसमें मंत्रों को पदों में तो विभक्त किया जाता है, लेकिन हर एक पद का उसके आगे आने वाले पद और उसके पीछे आने वाले पद के साथ जोड़ा बनाया जाता है। जिससे जहांजहां संधि हुई है उसका भी आपको ज्ञान हो सके और पदों का बिना संधि के भी आपको ज्ञान हो सके। यानी आप संहिता पाठ भी समझ पाए और पद पाठ भी समझ पाए। इसलिए जो क्रम पाठ होता है, वो दोनों पाठों का समिश्रण है और आपकी मेमोरी को और स्ट्रांग करता है। जो विद्वान संपूर्ण वेद शाखा का पाठ क्रम पाठ में कर लेता है, उसे क्रम वित्त की उपाधि दी जाती है, यह था प्रकृति पाठ।
विकृति पाठ के अंदर आठ प्रकार के पाठ होते हैं। जटा पाठ, माला पाठ, शिखा पाठ, रेखा पाठ, ध्वज पाठ, दंड पाठ, रथ पाठ और घन पाठ। विकृति पाठ का मतलब है, यानी वेद मंत्रों में जो नेचुरल क्रम दिया गया है, प्राकृतिक रूप से उस क्रम को यदि हम एक विशिष्ट गणतीय प्रणाली से चेंज कर दें। इस प्रकार चेंज करें कि वो प्रिजर्व तो रहे लेकिन साथ में हमारी मेमोरी में भी बने रहे तो इसे विकृति पार्ट कहा जाता है।
जटापाठ: इसमें दो-दो पदों के जोड़े बनाए जाते हैं। लेकिन हर एक पद के लिए एक बार सीधा पढ़ा जाता है, एक बार उल्टा पढ़ा जाता है, और फिर सीधा पढ़ा जाता है, और ऐसे ही आगे बढ़ा जाता है। एक स्त्री की अगर आप चोटी को देखें तो उसमें एक बार सीधा जाना होता है, एक बार उल्टा आना होता है, और फिर सीधा जाना होता है। इसीलिए इसको जटापाठ कहा जाता है।
माला पाठ: इसमें जैसे फूलों को हम एक माला में, एक विशेष रूप में पिरोते हैं। उसी प्रकार से यहां पदों को भी एक विशेष रूप में व्यवस्थित किया जाता है। माला पाठ भी दो प्रकार का होता है। पुष्पमाला और क्रम माला।
शिखा पाठ: इसमें जटापाठ का एक विशेष रूप है। तो जो जटापाठ का सीक्वेंस होता है, एक पॉस के पहले अगर हम उस सीक्वेंस में अगला पद भी ऐड कर दें, तो हमारा शिखा पाठ बन जाता है।
रेखा पाठ: इसमें पदों को विभक्त करने के बाद दो के, तीन के, चार के और पांच के ग्रुप्स बनाए जाते हैं। हर एक ग्रुप में आपको सीधा भी जाना होता है, उल्टा भी आना होता है। और यह जो अलग-अलग ग्रुप्स हैं इनमें सीधा जाना, उल्टा आना इसके बीच में आप दो-द के जोड़े भी बनाकर रखते हैं। तो इसे रेखा पाठ कहा जाता है।
ध्वज पाठ: इसमें आप पदों को विभक्त करने के बाद प्रारंभ से और अंत से दोनों तरफ से पढ़ते हैं। दो-दो के जोड़े में तो पहले अगर आपने 1 2 पढ़ा तो पीछे से 99 100 पढ़ेंगे। फिर अगर आपने 2 3 पढ़ा तो फिर आप पीछे से 98 99 पढ़ेंगे। फिर आपने 3 4 पढ़ा तो पीछे से 97 98 पढ़ेंगे। तो यदि आप इस प्रकार से पाठ करते हैं तो इसे ध्वज पाठ कहा जाता है।
दंड पाठ: इसमें आप पद तो बनाते हैं उसके जोड़े भी बनाते हैं लेकिन जैसे ही आप एक कदम आगे रखते हैं आपको वापस आना होता है। फिर जब आप नया पद लेंगे फिर आपको वापस आना होगा फिर से शुरू करना होगा और फिर जब आप नया पद लेंगे तो फिर वापस आना होगा और यह प्रक्रिया तब तक चलेगी जब तक आपका पूरा मंत्र समाप्त ना हो जाए।
रथ पाठ: इसमें अगर आप मंत्र को क्वटर्स में विभक्त कर लें और फिर उनके पदों को एक साथ पढ़ें। यानी एक क्वार्टर से आपने एक जोड़ा लिया, दूसरे क्वार्टर से आपने दूसरा जोड़ा लिया, उनको साथ में रखने के बाद, उसको आप उल्टा भी पढ़ें, और फिर जब आप आगे बढ़े तो फिर आपने एक क्वार्टर से दो जोड़े लिए। दूसरे क्वार्टर से दो जोड़े लिए और फिर उनको उल्टा भी पढ़ा, तो इस प्रकार से जब आप दो क्वटर्स के पदों को सीधा और उल्टा पढ़ते हैं, तो रथ पाठ बनता है।
घन पाठ: इसमें जिस प्रकार से वर्णन किया गया है उसके अनुसार ऐसी व्यवस्था है कि यदि आप अंत से प्रारंभ करें और प्रारंभ तक आए और फिर प्रारंभ से अंत तक जाएं। इस प्रकार से अगर आप मंत्र का पाठ करते हैं तो उसे घन पाठ कहा जाता है।
तो इस प्रकार आठ प्रकार के विकृति पाठ हैं। विकृति पाठ का उद्देश्य कि हम इस प्रकार से वैदिक मंत्रों का उच्चारण करें। आगे से, पीछे से, अलग-अलग तरह से रिपीट करें कि वो हमारी मेमोरी में इस प्रकार प्रिजर्व हो जाए कि हम कभी उन्हें ना भूलें और इस प्रकार प्रिजर्व करने से मेमोराइज करने से भी अक्षरों का जो क्रम है उसमें भी त्रुटि नहीं होती है। कोई अक्षर छूटता भी नहीं है और ना ही किसी नए अक्षर के आने की संभावना रहती है। इस प्रकार जो हमारे वेद मंत्र हैं।
इसी वेद पाठ की परंपरा में शुक्ल यजुर्वेद की मांझन दिनी शाखा में दंड क्रम पारायण को दंड क्रम पारायण भी एक प्रकार का वेद पाठ है। जिसमें हम एक-एक पद को लेते जाते हैं। उसका सीधा उल्टा और सीधा पढ़ते हैं।
उदाहरण के तौर पर: आपका नाम देवव्रत, महेश, रेखे। अब खाली तीन नाम है, लेकिन दंडक्रम में ऐसे नहीं कहा जाएगा। दंड क्रम में कहा जाएगा देवव्रत महेश, महेश देवव्रत, रेखे महेश महेश रेखे, देवव्रत रेखे रेखे देवव्रत और फिर उल्टा संयोजन और फिर इसके बाद शब्दों को जोड़कर, फिर उसे अलग-अलग क्लब में रखकर, यह प्रक्रिया सैकड़ों बार अलग-अलग शैली में दोहराई जाती है। यह एक नाम नहीं जिसकी हम बात कर रहे हैं यह 2000 मंत्र हैं। अब आप कल्पना करके देखिए कि एक नाम का क्रम याद करने में दिमाग आपका अटक जाएगा।
यानी जैसे आपने 1 2 लिया तो 1 2, 2 1, 1 2 पढ़ना होगा। फिर आप 1 2 3 लेते हैं तो 1 2 3, 3 2 1, 1 2 3 पढ़ते हैं। फिर आप 1 2 3 4 लेते हैं तो 1 2 3 4, 4 3 2 1, 1 2 3 4 पढ़ते हैं। फिर अगर आप एक पद और जोड़ते हैं 1 2 3 4 5 तो 1 2 3 4 5, 5 4 3 2 1, 12 3 4 5 पढ़ते हैं, आप इसको सीधा पढ़ेंगे। इसका उल्टा पढ़ेंगे और फिर सीधा पढ़ेंगे। 1 2 3 4 5, 5 4 3 2 1, 12 3 4 5
यह सबसे कठिन साधनाओं में से एक मानी जाती है। इसे पूरा करने में एकाग्रता, अनुशासन और शुद्धता की जरूरत होती है। हमारा अध्ययन का काल होता है 12 साल का और उसमें यह विशिष्ट अध्ययन है दंडक्रम का। तो अध्ययन करने के लिए कम से कम 5 साल चाहिए। यह गुरु कृपा से प्राप्त हुआ है। महेश रेखे के पिता महेश चंद्रकांत रेखे स्वयं बहुत बड़े वेद पाठी और विद्वान हैं। यही वजह है कि देवव्रत रेखे को बचपन से ही घर में वेद पुराणों के पाठ का वातावरण मिला। देवव्रत के पिता महेश चंद्रकांत रेखे ही अपने बेटे के पहले गुरु हैं। 5 साल की कच्ची उम्र से ही उन्होंने अपने पिता की देखरेख में वेद मंत्रों का पाठ शुरू कर दिया था। फिर देवव्रत महेश रेखे काशी आ गए और सांगवाद विश्वविद्यालय में दाखिला लेकर वेदों का गहनता से अध्ययन शुरू कर दिया और अब एक ऐसा कीर्तिमान बना दिया है कि पूरी दुनिया अब उनकी इस उपलब्धि पर गर्व कर रही है।
हमारी आठ विकृतियां होती हैं, वेद में जिसको दंड शिख जटा घन आदि जो कहते हैं। जब इस वेद में पारंगत व्यक्ति हो जाता है तो उसको वेद मूर्ति कहते हैं। जैसे आप लोग देखते हैं ना हर अक्षर और हर उसके साथ में स्वर लगता है। जैसे मान लीजिए कोई भी है जैसे वेद का प्रथम मंत्र है इतवा बायावस्तावो तो हर मंत्र में हाथ आपका कहां किस जगह जाना चाहिए वो भी स्वर आप देखिए तो इन्हने कहीं भी त्रुटि नहीं की है। इसलिए इनको यह उपाधि दी गई है और वाकई में यह वह विद्युत हैं जो इनको हम सभी नमन करते हैं कि इतनी छोटी उम्र में इन्हने यह जो है जो वेद पारायण करके सुनाया और जो दंडक का पाठ किया वो अपने आप में एक हम सनातनियों के लिए या हम जो है जो ब्राह्मण पुजारी हैं या कोई भी जो धर्म के क्षेत्र में हैं उनके लिए बड़े गौरव की बात है।
वेद भगवान की सेवा करने के लिए, संरक्षण के लिए, हमारी वैदिक संस्कृति, वैदिक सनातन धर्म की धरा को पुनर्जीवित करने के लिए, उसका संरक्षण करने के लिए यह पारण हुआ है। विद्या से विद्या के माध्यम से भगवान को समर्पण करना है। सनातन के प्रचार प्रसार के लिए ही उन्होंने यह किया है।
वेद पाठ का जो विधान होता है, उसमें वेदी की स्थापना या मंडल नहीं होता है। घी का दीपक प्रज्वलित करके जो मूर्ति स्थापित करके शुरू करते हैं। इसमें उच्चारण का विशेष महत्व होता है। खास करके हमारे भारत देश में जो पूजन में विशेष मंत्र प्रयोग किए जाते हैं वो शुक्ल यजुर्वेद के ही मंत्र होते हैं।
जब वो वेदमूर्ति जी पारायण कर रहे हैं, तो आप हाथ देख रही होंगे कि उनका हाथ ऐसे चल रहा है, उस हाथ का भी बड़ा नियम होता है। जहां पे स्वर जिस जगह लगा हुआ है, उस वक्त हाथ वहीं पर जाएगा। उच्च स्वर है तो ऊपर जाएगा, मध्य में है तो बीच में रहेगा, बाएं और दाएं पे है तो बाएं दाएं जाएगा, नीचे है तो नीचे जाएगा। तो इसका भी बहुत ज्यादा उसमें जो है ध्यान रखा जाता है। आज भी कुछ ऐसे महान हैं जो अपने विधिवत संस्कारों से संस्कृत होकर जब वो वेद पारायण करते हैं, वेद पाठ करते हैं, तो इस तरह के विशिष्ट निकलते हैं।
दंडक्रम जैसी विधियां सिर्फ ज्ञान याद करने की तकनीक नहीं दिमाग को तेज बनाती है। स्मरण शक्ति बढ़ाती है। मन को स्थिर करती हैं। यह ब्रेन का सबसे पुराना और उन्नत रूप है। इसलिए विदेशों में लोग हैरान हैं। क्योंकि उनके लिए यह सिर्फ एक धार्मिक कर्मकांड नहीं है। ब्रेन साइंस का चमत्कार है। भारत की आत्मा सिर्फ इतिहास में नहीं वर्तमान में भी जीवित है। हम आने वाले भविष्य के निर्माता हैं। भविष्य वही बनाते हैं जो अपनी जड़ों में रहते हैं। जड़े मजबूत होंगी तो पेड़ ऊंचा होगा और जब पेड़ ऊंचा होगा तो दुनिया उसकी छाया में रहेगी। हमारी स्मरण शक्ति की परंपरा आउटडेटेड नहीं अद्वितीय है। इस 19 साल की युवा ने वही करके दिखाया है जिसे दुनिया ने असंभव माना। यदि कोई सभ्यता अपने ज्ञान की डोर छोड़ दे तो वह संग्रहालय बन जाती है और जो सभ्यता अपनी जड़ों को पकड़ कर रखती है वह दुनिया को दिशा देती है।
भारत में अगर आप गुरु परंपरा को देखेंगे तो गुरु परंपरा में हम ज्यादा लिखते नहीं थे। हम स्मृति पर ध्यान देते थे और आने वाली पीढ़ियों को सिखाते थे। भारत में शिक्षा हजारों साल तक याद करने की शिक्षा पर आधारित थी। इसी कारण भारत की पुरानी शिक्षा पद्धति दुनिया में सम्मानित थी। गुरु से शिष्य, श्रुति से स्मृति, स्मृति से जीवन तक प्रभावित रहा। कोई राजा बदला, कोई युग बदला, कोई साम्राज्य खत्म हुआ पर ज्ञान का प्रवाह नहीं हुआ। जो सभ्यता अपनी जड़ों से कट जाती है उसका भविष्य कमजोर होता है। जिसने परंपरा छोड़ दी वो इतिहास बन गई। जिसने अपनी विरासत संभाल ली वो दुनिया में आगे गई। आज वही शक्ति एक 19 साल के लड़के ने फिर साबित की है। देवव्रत की तारीफ सारी दुनिया कर रही है। उसकी मेमोरी का लोहा दुनिया मान रही है।
चीन, कोरिया, तुर्की, ग्रीस अपने इतिहास, अपने पुराने दर्शन और पर्यटन दुनिया को दिखाते हैं। इजिप्ट सभ्यता को दिखाता है। लेकिन कुछ लोग प्रकाश नहीं देखते, सिर्फ धुआं गिनने लगते हैं, जिन्हें भारतीय परंपरा की हर चीज पुरानी लगती है। जहां हमारी वेद, भारतीय सभ्यता, हमारी पुरानी चीजें, हमारी परंपराएं, हमारे संस्कृति, हमारे कल्चर की बात आए वहां लोगों को आउटडेटेड लगती है। वही चीज विदेशों में उन्हें अच्छी लगती है। लेकिन देवव्रत जैसे बच्चे हमें याद दिलाते हैं कि भारत का अस्तित्व एक सदी का नहीं हजारों वर्षों की निरंतर साधना, अनुशासन, मानसिक संकल्प का परिणाम है।
नमस्कार ! जय हिंद ! जय भारत !
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