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August 2, 2025
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डर को हराने की कहानी: गीता का श्लोक और रोहन का साहस

सञ्जय उवाच । दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा । आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत् ।। 2।।

सूरज की पहली किरणें दिल्ली की ऊँची-ऊँची इमारतों के बीच से झांक रही थीं। शहर की भागदौड़ भरी जिंदगी में एक नया दिन शुरू हो रहा था। लेकिन इस सुबह की चमक में कुछ खास था, क्योंकि आज रोहन, एक युवा कॉर्पोरेट कर्मचारी, अपने जीवन के सबसे बड़े युद्ध के लिए तैयार हो रहा था। यह युद्ध न तो तलवारों से लड़ा जाना था, न ही ढालों से। यह था उसके मन का युद्ध—सपनों और डर, आत्मविश्वास और संदेह के बीच का द्वंद्व।

रोहन की कहानी उस पल से शुरू होती है, जब वह अपने ऑफिस की 25वीं मंजिल पर खड़ा था, कांच की खिड़की से नीचे फैले शहर को देखते हुए। आज उसकी जिंदगी का सबसे बड़ा प्रेजेंटेशन था। कंपनी का भविष्य, उसकी मेहनत, और उसका आत्मसम्मान—सब कुछ दांव पर था। सामने बैठे लोग, उसके बॉस, सहकर्मी, और निवेशक, एक ऐसी सेना की तरह थे, जो उसकी हर कमजोरी को परखने के लिए तैयार थी। ठीक वैसे ही, जैसे गीता में दुर्योधन ने पांडवों की व्यूह रचना को देखकर आचार्य द्रोण से बात की थी।

रोहन का मन अशांत था। उसने महीनों तक इस प्रेजेंटेशन के लिए दिन-रात मेहनत की थी। हर आंकड़ा, हर स्लाइड, हर शब्द उसने बार-बार परखा था। फिर भी, जैसे ही वह मीटिंग रूम की ओर बढ़ा, उसके मन में एक डर सा उठा। “क्या होगा अगर मैं असफल हो गया? अगर मेरी बातें उन्हें पसंद नहीं आईं? क्या मेरी मेहनत बेकार चली जाएगी?” ये सवाल उसके मन में कुरुक्षेत्र के युद्ध की तरह उमड़-घुमड़ रहे थे।

तभी, लिफ्ट में खड़े एक बुजुर्ग व्यक्ति ने उसकी बेचैनी को भांप लिया। वह व्यक्ति, जिनका नाम शायद गुरुजी था, कंपनी के पुराने कर्मचारी थे, जो अब रिटायर हो चुके थे, लेकिन कभी-कभी ऑफिस आया करते थे। उनके चेहरे पर एक अजीब सी शांति थी, जैसे वह हर युद्ध को जीत चुके हों। उन्होंने रोहन की ओर देखकर मुस्कुराते हुए कहा, “बेटा, डर तो हर युद्ध से पहले आता है। लेकिन याद रख, जो सामने है, वह सिर्फ एक व्यूह है। उसे समझ, उसका सामना कर, और फिर आगे बढ़।”

रोहन ने उनकी बात को ध्यान से सुना। गुरुजी ने आगे कहा, “गीता में दुर्योधन ने भी यही किया था। उसने पांडवों की सेना को देखा, उसकी ताकत को समझा, और फिर अपने आचार्य से मार्गदर्शन मांगा। लेकिन असली जीत उसे मिलती है, जो अपने मन की व्यूहरचना को समझ लेता है। तुम्हारा युद्ध बाहर नहीं, तुम्हारे भीतर है।”

इन शब्दों ने रोहन के मन में एक नई चिंगारी जलाई। वह मीटिंग रूम में दाखिल हुआ, लेकिन अब वह पहले वाला डरा हुआ रोहन नहीं था। उसने अपने प्रेजेंटेशन को एक कहानी की तरह पेश किया। हर स्लाइड में उसने अपने सपनों को, अपनी मेहनत को, और अपने विश्वास को बुन दिया। उसकी आवाज में एक नई ताकत थी, जैसे वह न सिर्फ अपने लिए, बल्कि अपनी पूरी टीम के लिए लड़ रहा हो।

जब प्रेजेंटेशन खत्म हुआ, तालियों की गड़गड़ाहट ने कमरे को भर दिया। निवेशकों ने उसकी तारीफ की, और उसके बॉस ने उसे गले लगाकर कहा, “रोहन, तुमने आज न सिर्फ प्रोजेक्ट बचाया, बल्कि हम सबका भरोसा जीता।” लेकिन रोहन के लिए सबसे बड़ा पुरस्कार था वह सुकून, जो उसे अपने डर को जीतने से मिला था।

उस रात, जब वह घर लौटा, तो उसने अपनी डायरी में लिखा:
“आज मैंने सीखा कि जिंदगी का हर युद्ध कुरुक्षेत्र है। सामने चाहे कोई भी व्यूह हो, उसे समझने और उसका सामना करने की हिम्मत ही हमें जीत दिलाती है। गीता का यह श्लोक मेरे लिए सिर्फ शब्द नहीं, बल्कि एक जीवन दर्शन बन गया।”

आज के युग में श्लोक का महत्व

यह कहानी सिर्फ रोहन की नहीं, हम सबकी है। आज का युग, जहां हर दिन नई चुनौतियां सामने आती हैं, हमें बार-बार अपने डर, अपनी कमजोरियों का सामना करना पड़ता है। गीता का यह श्लोक हमें सिखाता है कि जीवन में हर मुश्किल एक व्यूह की तरह है। उसे डर से देखने की बजाय, हमें उसे समझना होगा, उसका सामना करना होगा, और अपने गुरु—चाहे वह कोई व्यक्ति हो, किताब हो, या हमारा अंतर्मन—से मार्गदर्शन लेना होगा। असली जीत बाहर की नहीं, बल्कि अपने भीतर की होती है।

रोहन की तरह, हम सभी को अपने कुरुक्षेत्र में उतरना है। और जब हम अपने मन की व्यूहरचना को समझ लेंगे, तो कोई भी युद्ध हमें हरा नहीं सकता।

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