धूल हवा में नाच रही थी। सूरज डूबता हुआ लाल था। विशाल मैदान में दो सेनाएँ खड़ी थीं। पाण्डवों की सेना, सुव्यवस्थित, शक्तिशाली। सामने कौरवों का हुजूम। धृष्टद्युम्न ने पाण्डवों को संभाला था। उसकी बुद्धि तलवार-सी तेज थी।
गाँव में रहता था अनिल। जवान, सपनों से भरा। पर मन अशांत। आज का समाज उसका युद्धक्षेत्र था। सोशल मीडिया का शोर। झूठी खबरें। चमक-दमक का जाल। अनिल भटक गया था। सही-गलत का फर्क खो गया। वह रातों को जागता। मन में सवाल उमड़ते।
एक दिन, गाँव के मंदिर में बाबा मिले। “अनिल, देख, जैसे पाण्डवों की सेना थी, वैसे मन को तैयार कर।” अनिल की आँखें नम हुईं। “बाबा, ये दुनिया मुझे डुबो रही है। रास्ता क्या है?” बाबा मुस्कुराए। “धृष्टद्युम्न-सा बुद्धिमान बन। सत्य को पकड़।”
अनिल ने कदम बढ़ाया। फोन बंद किया। किताबें खोलीं। उदाहरण लिया—एक बार दोस्त ने गलत खबर फैलाई। अनिल ने सच खोजा। तथ्य सामने लाए। उसने गाँव के बच्चों को पढ़ाना शुरू किया। उनकी हँसी में शांति पाई। उसने गलत सूचनाओं को ठुकराया। सत्य को गले लगाया।
धीरे-धीरे, शोर थमा। अनिल का मन साफ हुआ। वह अब एक दीपक था। गाँव में रोशनी फैलाता। उसने सीखा—जीवन का युद्ध बुद्धि और सत्य से जीता जाता है। समाज का भटकाव मायने नहीं रखता। मन की शक्ति सब कुछ बदल देती है।
संदेश: आज के शोर और भटकाव में, धृष्टद्युम्न की तरह बुद्धि और अनुशासन अपनाओ। सत्य तुम्हारा हथियार है। प्रेम और ज्ञान से दुनिया को रोशन करो।