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April 29, 2024
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भजगोविन्दं भजगोविन्दं गोविन्दं भज मूढमते | Bhaja Govindam Bhaja Govindam Govindam Bhaja Moodha Mate

Credit the Video: Spiritual Channel YouTube Channel

भजगोविन्दं भजगोविन्दं गोविन्दं भज मूढमते | Bhaja Govindam Bhaja Govindam Govindam Bhaja Moodha Mate: दोस्तों नमस्कार, आज हम इस लेख माध्यम से भज गोविंदम बारे में बात करेंगे। जगद्गुरु आदि शंकराचार्य द्वारा रचित भज गोविंदम अत्यंत मधुर और प्रसिद्ध स्तोत्र है। आदि शंकराचार्य ने इस स्तोत्र में संसार के मोह में न पड़ कर गोविन्द की भक्ति करने का उपदेश दिया है। इस भज गोविन्दम स्तोत्र में केसे मनुष्य सांसारिक बंधनों से मुक्त हो कर भगवान् का भजन करना और गोविंद के प्रति समर्पण भाव रख कर मोक्ष के द्वार पर पंचना एही शिक्षा दी गई है। अपनी उम्र में ज्ञान मार्ग पर समय बर्बाद न करें, बल्कि अपने मन को भक्ति मार्ग या मुक्ति प्राप्त करने का मार्ग अपनाना चाहिए। जब बुद्धि या ज्ञान परिपक्व हो जाता है, तो यह विज्ञान बन जाता है। जब विज्ञान जीवन में एकीकृत हो जाता हैं, तो यह भक्ति बन जाता है। ज्ञान जो परिपक्व हो गया है उसे भक्ति कहा जाता है।

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शंकराचार्य का कहना है कि जो मनुष्य अपनी उम्र में अपना समय बर्बाद न करें, भौतिक वस्तुओं की लालसा और मोह छोड़ कर, अपने मन को गोविंद के चरण में समर्पित करेगा, भगवान गोविंद के भजन करेगा, अन्तकाल में बो अर्जित हरि नाम काम आएगा। आध्यात्मिक विकास के लिए, जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति के लिए, भगवान के प्रति भक्ति श्रेष्ठ मार्ग हैं। एक है कर्म मार्ग, एक है ज्ञान मार्ग, बीच वाला है भक्ति मार्ग, सबसे सहज मार्ग है भक्ति मार्ग। उनका कहना है की मृत्यु के समय ज्ञान आपका रक्षा नहीं कर पायेगा, केवल भक्ति ही आपको मुक्ति दे सकती है। इस स्तोत्र में हमें यह शिक्षा मिलती है कि केवल भगवान के प्रति प्रेम और समर्पण भाव रखने से ही हमें जल्दी भक्ति प्राप्त हो सकती है। तो आईए भक्ति भाव से इस भ्रम-नाशक भज गोविन्दम स्तोत्र का पाठ करते हैं:

Bhaja Govindam Bhaja Govindam Govindam Bhaja Moodha Mate

भजगोविन्दं भजगोविन्दं गोविन्दं भज मूढमते

भजगोविन्दं भजगोविन्दं गोविन्दं भज मूढमते ।
संप्राप्ते सन्निहिते काले नहि नहि रक्षति डुकृंकरणे ॥ 1 ॥

मूढ जहीहि धनागमतृष्णां कुरु सदबुद्धिं मनसि वितृष्णाम्।
यल्लभसे निजकर्मोपात्तं वित्तं तेन विनोदय चित्तम् ॥ 2 ॥

नारीस्तनभर नाभीदेशं दृष्टवा मागामोहावेशम्।
एतन्मांसावसादि विकारं मनसि विचिन्त्य वारं वारम् ॥ 3 ॥

नलिनीदलगत जलमतितरलं तद्वज्जीवितमतिशय चपलम्।
विद्धि व्याध्यभिमानग्रस्तं लोकं शोकहतं च समस्तम् ॥ 4 ॥

यावत् वित्तोपार्जन सक्त: स्तावन्निज परिवारो रक्त:।
पश्चाज्जीवति जर्जर देहे वार्तां कोपि न पृच्छति गेहे ॥ 5 ॥

यावत्पवनो निवसति देहे तावत्पृच्छति कुशलं गेहे।
गतवति वायौ देहापाये भार्या बिभ्यति तस्मिन्काये ॥ 6 ॥

बालस्तावत्क्रीडासक्त: तरुणस्तावत्तरुणी सक्त:।
वृद्धस्तावत् चिन्तासक्त: परे ब्रह्मणि कोपि न सक्त: ॥ 7 ॥

काते कान्ता कस्ते पुत्र: संसारो अयमतीव विचित्र:।
कस्य त्वं क: कुत आयात: तत्त्वं चिन्तय तदिह भ्रात: ॥ 8 ॥

सत्संगत्वे निस्संगत्वं निस्संगत्वे निर्मोहत्वम्।
निर्मोहत्वे निश्चलतत्त्वं निश्चलतत्त्वे जीवन्मुक्ति: ॥ 9 ॥

वयसिगते क: कामविकार: शुष्के नीरे क: कासार:।
क्षीणेवित्ते क: परिवार: ज्ञाते तत्त्वे क: संसार: ॥ 10 ॥

मा कुरु धन जन यौवन गर्वं हरति निमेषात्काल: सर्वम्।
मायामयमिदमखिलं हित्वा ब्रह्मपदं त्वं प्रविश विदित्वा ॥ 11 ॥

दिनयामिन्यौ सायं प्रात: शिशिरवसन्तौ पुनरायात:।
काल: क्रीडति गच्छत्यायु: तदपि न मुंचत्याशावायु: ॥ 12 ॥

द्वादशमंजरिकाभिरशेष: कथितो वैयाकरणस्यैष:।
उपदेशो भूद्विधानिपुणै: श्रीमच्छन्करभगवच्छरणै: ॥ 13 ॥

काते कान्ता धन गतचिन्ता वातुल किं तव नास्ति नियन्ता।
त्रिजगति सज्जनसं गतिरैका भवति भवार्णवतरणे नौका ॥ 14 ॥

जटिलो मुण्डी लुन्चित केश: काषायाम्बरबहुकृतवेष:।
पश्यन्नपि चन पश्यति मूढ: उदरनिमित्तं बहुकृतवेष: ॥ 15 ॥

अंग गलितं पलितं मुण्डं दशनविहीनं जतं तुण्डम्।
वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मुंचत्याशापिण्डम् ॥ 16 ॥

अग्रे वह्नि: पृष्ठेभानु: रात्रौ चुबुकसमर्पितजानु:।
करतलभिक्षस्तरुतलवास: तदपि न मुंचत्याशापाश: ॥ 17 ॥

कुरुते गंगासागरगमनं व्रतपरिपालनमथवा दानम्।
ज्ञानविहिन: सर्वमतेन मुक्तिं न भजति जन्मशतेन ॥ 18 ॥

सुर मंदिर तरु मूल निवास: शय्या भूतल मजिनं वास:।
सर्व परिग्रह भोग त्याग: कस्य सुखं न करोति विराग: ॥ 19 ॥

योगरतो वा भोगरतो वा संगरतो वा संगविहीन:।
यस्य ब्रह्मणि रमणे चित्तं नन्दति नन्दति नन्दत्येव ॥ 20 ॥

भगवद् गीता किंचिदधीता गंगा जललव कणिकापीता।
सकृदपि येन मुरारि समर्चा क्रियते तस्य यमेन न चर्चा ॥ 21 ॥

पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम्।
इह संसारे बहुदुस्तारे कृपयापारे पाहि मुरारे ॥ 22 ॥

रथ्या चर्पट विरचित कन्थ:पुण्यापुण्य विवर्जित पन्थ:।
योगी योगनियोजित चित्तो रमते बालोन्मत्तवदेव ॥ 23 ॥

कस्त्वं कोहं कुत: आयात: का मे जननी को मे तात:।
इति परिभावय सर्वमसारं विश्वं त्यक्त्वा स्वपन विचारम् ॥ 24 ॥

त्वयि मयि चान्यत्रैको विष्णु: व्यर्थं कुप्यसि मय्य सहिष्णु:।
भव समचित्त: सर्वत्र त्वं वांछस्यचिराद्यदि विष्णुत्वम् ॥ 25 ॥

शत्रौ मित्रे पुत्रे बन्धौ मा कुरु यत्नं विग्रहसन्धौ।
सर्व स्मिन्नपि पश्यात्मानं सर्वत्रोत्सृज भेदाज्ञानम् ॥ 26 ॥

कामं क्रोधं लोभं मोहं त्यक्त्वात्मानं भावय कोहम्।
आत्मज्ञान विहीना मूढा: ते पच्यन्ते नरकनिगूढा: ॥ 27 ॥

गेयं गीता नाम सहस्रं ध्येयं श्रीपति रूपमजस्रम्।
नेयं सज्जन संगे चित्तं देयं दीनजनाय च वित्तम् ॥ 28 ॥

सुखत: क्रियते रामाभोग: पश्चाद्धन्त शरीरे रोग:।
यद्यपि लोके मरणं शरणं तदपि न मुंचति पापाचरणम् ॥ 29 ॥

अर्थमनर्थं भावय नित्यं नास्तितत: सुखलेश: सत्यम्।
पुत्रादपि धन भाजां भीति: सर्वत्रैषा विहिआ रीति: ॥ 30 ॥

प्राणायामं प्रत्याहारं नित्यानित्य विवेकविचारम्।
जाप्यसमेत समाधिविधानं कुर्ववधानं महदवधानम् ॥ 31 ॥

गुरुचरणाम्बुज निर्भर भकत: संसारादचिरादभव मुक्त:।
सेंद्रियमानस नियमादेवं द्रक्ष्यसि हृदयस्थं देवम् ॥ 32 ॥

मूढ: कश्चन वैयाकरणो डुकृंकरणाध्ययन धुरिण:।
श्रीमच्छम्कर भगवच्छिष्यै बोधित आसिच्छोधितकरण: ॥ 33 ॥

भजगोविन्दं भजगोविन्दं गोविन्दं भजमूढमते।
नामस्मरणादन्यमुपायं नहि पश्यामो भवतरणे ॥ 34 ॥

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